Wednesday, September 3, 2008

ये ज़िंदगी...

ये भूख, ये महामारी

ये छल, ये कपट;

ये घटती हुई दिलदारी

ये नीच दिखाने की झपट.


आन्सुओ से भरा ये मुख

अकेलापन का ये गहरा दुःख;

किसका हाथ थामे हम

किसकी आड़ मैं छिपाए गम.


वक़्त ये चलता ही जा रहा

ख़ुद को चाह कर भी रोक नही पा रहा;

ये मैं किधर जा रहा

किसे मैं तलाश रहा.


कभी आंधी चल जाए

कभी खुशी की लहर आए और घट जाए;

कब कोई बिन कहे रूठ जाए

कब खुशियों की बौछार आए.


अनोखी है ये ज़िंदगी

हँसती भी, रुलाती भी;

जैसे भी है ये मस्त है

थम गया ये, तो मज़ा उध्वस्त है.

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